Wednesday, January 6, 2010

फूल सी नाज़ुक है वो
खिलखिलाती है वो
लडखडाती चले
मुस्कुराती आये
मम्मा मुझको बुलाये
गाना देख वो खाए
रात मुझको जगाये
खिलौने उसको न भाए
थाली चम्मच बजाये
कच्ची सब्जी भी खाए
चाय चखने वो आये
सु सु करके खेले
आइना देखकर मुस्कुराती है वो
मेरी सारी किताबे गिराती है वो
उसको कचरे का डब्बा लगे है प्यारा
पुरे घरमे यूँ कचरा फैलाती है वो
अपने पापा की छाती से चिपके है वो
अपने भैया के पीछे जो भागे है वो
कुत्ता देख के कुद्के लगाती है वो
जब भूख लगे खूब चिल्लाती है वो
रसोई में हल्ला मचाती है वो
कांच की बर्नियों को गिराती है वो
डायनिंग टेबल के निचे छुप जाती है वो
टीवीमें एड देख खिलखिलाती है वो
हरे मटर के दानो से खेले है वो
अपनी मम्मा की जुल्फों से खेले है वो
अपने हाथों से आँखें मसलती है वो
फिर धीरे से सपनो में खोती है वो
सुबह हसती हुई फिर से जगती है वो
ऐसे दुनिया मेरी रौशन करती है वो
ऐसा मुझको खिलाये
ऑफिस को देर कराये
रोज नए नखरे है
तौबा वो क्या कहने है
सुबह की किरन है वो
मेरा उजाला है वो
मेरी प्यारी है वो, मेरी बेटी है वो
मेरे सपनो की जैसे रंगोली है वो

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